हिन्दू धर्म में सदा से गुरु शिष्य परंपरा रही है। हमारे इतिहास में एक से एक शिष्य हुए हैं जिन्होंने अपने गुरु के लिए बड़ा से बड़ा बलिदान दिया, किन्तु आज हम एक ही गुरु के तीन ऐसे शिष्यों के विषय में बताएँगे जैसे फिर किसी और गुरु को नहीं मिले। इसका वर्णन हमें महाभारत के आदि पर्व के तीसरे अध्याय में मिलता है।
उस काल में एक प्रसिद्ध महर्षि थे जिनका नाम था आयोदधौम्य। उनके कई शिष्य थे किन्तु उनमें से तीन शिष्य उन्हें बड़े प्रिय थे। उनके नाम थे उपमन्यु, आरुणि एवं वेद। इन तीनों ने ही अपने गुरु के प्रति ऐसी अद्भुत भक्ति दिखाई जिसका उदाहरण आज भी दिया जाता है। इतिहास श्रेष्ठ शिष्यों से भरा पड़ा है किन्तु एक ही गुरु के तीन-तीन ऐसे शिष्य होना बहुत दुर्लभ है। आइये जानते हैं कि क्यों ये तीन शिष्य अद्भुत थे।
आरुणि: ये पांचाल देश के रहने वाले थे और इसीलिए इनका एक नाम आरुणि पांचाल भी था। एक बार महर्षि आयोदधौम्य ने आरुणि को खेत पर भेजा और कहा कि वो वहां की टूटी हुई मेड़ बांध दें। उनकी आज्ञा पाकर आरुणि खेत में जाकर मेड़ बांधने का प्रयास करने लगे किन्तु जल के तेज बहाव के कारण वे सफल ना हो सके। बिना गुरु की आज्ञा पूरी किये वापस जाना उन्हें ठीक नहीं लगा इसीलिए उस बहते हुए जल को रोकने के लिए वे स्वयं मेड़ के स्थान पर लेट गए जिस कारण जल रुक गया।
शाम को जब सभी शिष्य लौटे तो उन्होंने अपने गुरु को बताया कि आरुणि अभी तक नहीं लौटा। ये सुनकर महर्षि आयोदधौम्य अपने शिष्यों को लेकर आरुणि को ढूंढने खेत पर पहुंचे। वहां जाकर उन्होंने आवाज लगाई - "वत्स आरुणि! तुम कहाँ हो?" अपने गुरु की आवाज सुनकर आरुणि मेड़ से उठ कर अपने गुरु के सामने खड़े हो गए। इससे जल पुनः बहने लगा।
ये देख कर महर्षि आयोदधौम्य अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने आरुणि से कहा - "हे वत्स! तुम क्यारी के मेड़ को विदीर्ण करके उठे हो, अतः इस कारण तुम "उद्दालक" के नाम से प्रसिद्ध होंगे। तुमने मेरी आज्ञा का इस प्रकार पालन किया है इसीलिए तुम कल्याण के भागी होंगे। सम्पूर्ण वेद और समस्त धर्मशास्त्र स्वतः ही तुम्हारी बुद्धि में समा जाएंगे।" अपने गुरु से ऐसा अद्भुत वरदान पाकर उद्दालक, अर्थात आरुणि सभी वेद और शास्त्रों में पारंगत हो गए और अपने गुरु का आशीर्वाद लेकर अपने देश पांचाल लौट गए।
उपमन्यु: एक बार महर्षि आयोदधौम्य ने अपने दूसरे शिष्य उपमन्यु को अपनी गायों का ध्यान रकने को कहा। उनकी आज्ञा से उपमन्यु गायों की रक्षा करने लगे। वो दिन भर गायों को चरा कर शाम को लौटते थे और अपने गुरु को नमस्कार करते थे। एक दिन उनके गुरु ने देखा कि उपमन्यु खूब मोटे-ताजे हो रहे हैं। उन्होंने अपने शिष्य से पूछा - "उपमन्यु! क्या कारण है कि तुम इतने हृष्ट-पुष्ट हो गए हो?"
तब उपमन्यु ने कहा - "गुरुदेव! मैं भिक्षा मांग कर अपना पेट भरता हूँ।" ये सुनकर महर्षि आयोदधौम्य ने कहा - "पुत्र! मुझे अर्पण किये बिना तुम्हे भिक्षा का अन्न नहीं खाना चाहिए।" तब उपमन्यु प्रतिदिन स्वयं को मिली भिक्षा को अपने गुरु को अर्पण करने लगे। समय बीता किन्तु उपमन्यु उसी प्रकार मोटे-ताजे ही रहे। इसपर उनके गुरु ने फिर पूछा - "पुत्र! तुम्हारी सारी भिक्षा तो मैं रख लेता हूँ, फिर भी तुम इतने हृष्ट-पुष्ट कैसे हो?" ये सुनकर उपमन्यु ने कहा - "हे गुरुदेव! आपको भिक्षा देने के बाद मैं अपने लिए फिर भिक्षा मांगता हूँ और उसी से अपना पोषण करता हूँ।" ये सुनकर उनके गुरु ने कहा - "ये न्याययुक्त वृत्ति नहीं है। ब्रह्मचारी को केवल एक बार ही भिक्षा मांगने का विधान है।" उनकी ये बात सुनकर उपमन्यु "बहुत अच्छा", ऐसा कह कर चले गए।
समय बीता और उनके गुरु ने देखा कि उसका स्वास्थ्य वैसा ही है। ये देख कर उन्होंने फिर से उपमन्यु से पूछा - "बेटा उपमन्यु! मैं तुम्हारी सारी भिक्षा ले लेता हूँ और अब तुम दुबारा भिक्षा भी नहीं मांगते। फिर भी तुम इतने हृष्ट-पुष्ट कैसे हो?" ये सुनकर उपमन्यु ने कहा - "भगवन! अब मैं इन गायों के दूध से अपना निर्वाह करता हूँ।" ये सुनकर उनके गुरु ने कहा - "मैंने तुम्हे गायों का दूध पीने की आज्ञा नहीं दी है, अतः तुम्हे इनका दूध नहीं पीना चाहिए।" ये सुनकर उपमन्यु ने दूध ना पीने की भी प्रतिज्ञा कर ली।
कुछ और समय बीता और गुरु ने उपमन्यु को उसी प्रकार हृष्ट-पुष्ट देख कर पुनः पूछा - "पुत्र! तुम भिक्षा का अन्न भी नहीं खाते, दुबारा भिक्षा भी नहीं मांगते और अब गायों का दूध भी नहीं पीते हो। फिर क्या कारण है कि तुम इतने हृष्ट-पुष्ट हो?" तब उपमन्यु ने कहा - "गुरुदेव! ये बछड़े अपनी माँ का दूध पीते समय जो फेन उगल देते हैं, मैं उसे पीकर ही संतुष्ट हो जाता हूँ।" इस पर महर्षि आयोदधौम्य ने कहा - "पुत्र! निश्चय ही ये बछड़े तुम्हारे कारण बहुत सा फेन उगल देते होंगे। उसे पी कर तुम इनके भोजन में बाधा बन रहे हो, तुम्हे ऐसा नहीं करना चाहिए।" तब उपमन्यु ने बछड़ों के फेन को भी ना पीने की प्रतिज्ञा कर ली।
अब तो उपमन्यु के भोजन के सारे मार्ग बंद हो गए। वो भूख के कारण बड़ा कृशकाय हो गया। एक दिन भूख सहन ना कर पाने के कारण उन्होंने आक के पत्ते चबा लिए। इससे उपमन्यु अंधे हो गए और इधर-उधर भटकते हुए एक सूखे कुंएं में गिर पड़े।" जब संध्या के समय उपमन्यु वापस नहीं आये तब उनके गुरु को लगा कि मैंने उसके भोजन के सारे मार्ग बंद कर दिए हैं, कदाचित इसीलिए वो मुझसे रूठ कर चला गया है। यही सोच कर वे अपने शिष्यों के साथ उपमन्यु की खोज में निकले।
वन में पहुँच कर महर्षि आयोदधौम्य ने उपमन्यु को आवाज दी। तब उपमन्यु ने भी कुँए के अंदर से उन्हें पुकारा। उसे वहां देख कर महर्षि ने पूछा - "पुत्र! तुम कुँए में कैसे गिर पड़े?" ये सुनकर उपमन्यु ने उन्हें सारी कथा सुनाई और कहा - "हे गुरुदेव! मैं अँधा होकर इस कुँए में पड़ा हूँ, अब मुझे क्या करना चाहिए?" उसकी गुरुभक्ति से महर्षि आयोदधौम्य बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा - "पुत्र! अश्विनीकुमार देवताओं के वैद्य हैं, तुम उन्ही की स्तुति करो। वे तुम्हारी ऑंखें ठीक कर देंगे।"
तब उपमन्यु ने अश्विनीकुमारों की स्तुति की जिसे सुनकर वे दोनों वहां आये और उपमन्यु को एक पुआ दिया और कहा इसे खा लो जिससे तुम्हारी ऑंखें ठीक हो जाएंगी। तब उपमन्यु ने कहा - "भगवन! आपका बड़ा धन्यवाद किन्तु मैं इसे अपने गुरु की आज्ञा के बिना नहीं खा सकता। तब अश्विनीकुमारों ने कहा - "वत्स! तुम्हारे गुरु ने भी पहले हमारी स्तुति की थी और हमारे दिए गए पुए को बिना अपनी गुरु की आज्ञा के खा लिया था। इसीलिए तुम भी ऐसा ही करो।" ये सुनकर उपमन्यु ने कहा - "प्रभु! आपकी मैं बड़ी अनुनय-विनय करता हूँ किन्तु इसे मैं अपने गुरु की आज्ञा के बिना नहीं खा सकता।"
उसकी ऐसी गुरुभक्ति देख कर अश्विनीकुमार बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने उपमन्यु की ऑंखें ठीक कर दी और उनके सारे दांत सोने के बना दिए। इससे उनके गुरु आयोदधौम्य भी बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने उपमन्यु को वरदान दिया कि तुम्हारी बुध्दि में सम्पूर्ण वेद और सभी धर्मशास्त्र स्वतः ही समा जाएंगे। इस प्रकार अश्विनीकुमारों और अपने गुरु से वरदान प्राप्त कर उपमन्यु वेद-वेदांगों में पारंगत हो अपने नगर लौट गए।
वेद: उनके तीसरे शिष्य थे वेद। उन्हें महर्षि आयोदधौम्य ने आज्ञा दी कि तुम कुछ काल तक मेरे घर में रह कर मेरी सेवा करो। वेद ऐसा ही करने लगे। उसकी परीक्षा लेने के लिए उनके गुरु वेद से बैल की तरह काम लेने लगे। वे उससे दिन भर बोझा ढुलवाते, उसे भोजन नहीं देते, सर्दी गर्मी में भी उससे कड़ा काम करवाते थे। ऐसा करते हुए बहुत काल बीत गया। वेद उनकी सारी प्रताड़ना सहते हुए भी सदैव अपने गुरु की आज्ञा के अधीन रहते थे।
अंततः वेद की अद्भुत गुरुभक्ति देख कर महर्षि आयोदधौम्य बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने वेद को वरदान देकर सर्वज्ञ बना दिया। अपनी शिक्षा पूर्ण कर वेद अपने नगर लौट गए। इन्ही वेद के महान शिष्य थे महर्षि उत्तंक जो अपने गुरु से भी बढ़कर गुरुभक्त निकले। इन्होने ने महाराज जन्मेजय को सर्पयज्ञ करने के लिए प्रेरित किया था। उनकी कथा हम किसी और लेख में जानेंगे।
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